vo गुजरा दौर माँ का था, जब उसने हमे पला, इसकी हम अज सिर्फ कल्पना करते है की वो १३-१४ बरस की थी ,जब फूफाजी के यंहा बाबूजी से ब्याह हुआ था. माँ को उनके उतने बड़े घर का चौका संभालना पड़ता था, नन्द के आदेश का पालन करना होता,कोई नखरे नही होते थे.बाबूजी उनकी खेत और शराब के ठेके सँभालते, खेती जो १०० अचर के लगभग थी, हंसी खेल न था, बाबूजी रत भर खेती घनी के लिए बहार होते.
माँ के सहायता के लिए कामवाली थी ,पर जो भी रसोई की बात थी, वो उसकी जिम्मेदारी,फिर हर डेढ़ बरस में बछे होते, माँ को डिलेवरी के बाद मेथी गुड के कडवे लड्डू खाने बुआ देती, बुआ की बेटियों को सिर्फ मेवे घी के लड्डू मिलते.माँ बुआ को अज भी सम्मान से यद् करती है, हम सभी उनकी सबको पुकारने की आदत को यद् करते ह, जब वो नाम लेती तो, हम सबके नाम उनके जुबान पे आने लगते, यदि किसी एक को पुकारना हो तो बेची ८-७ नाम लेती, तब वो नाम आता.
खाना बना लेना ही तब पर्याप्त नही होता, वंहा रसोई एक घर में बनती, जो घर का पीछे का भाग था, किन्तु फूफा के साथ रोज १० -२० लोग जीमते, तो आंगन पर क्र खाना खिलने का वंहा करना पड़ता, इतने बड़े घर में वो बालिका वधु रत तक अकेली उतनों का भोजन इस घर से उस घर तक अकेली करती ,रात ११ बजे तक.
माँ के सहायता के लिए कामवाली थी ,पर जो भी रसोई की बात थी, वो उसकी जिम्मेदारी,फिर हर डेढ़ बरस में बछे होते, माँ को डिलेवरी के बाद मेथी गुड के कडवे लड्डू खाने बुआ देती, बुआ की बेटियों को सिर्फ मेवे घी के लड्डू मिलते.माँ बुआ को अज भी सम्मान से यद् करती है, हम सभी उनकी सबको पुकारने की आदत को यद् करते ह, जब वो नाम लेती तो, हम सबके नाम उनके जुबान पे आने लगते, यदि किसी एक को पुकारना हो तो बेची ८-७ नाम लेती, तब वो नाम आता.
खाना बना लेना ही तब पर्याप्त नही होता, वंहा रसोई एक घर में बनती, जो घर का पीछे का भाग था, किन्तु फूफा के साथ रोज १० -२० लोग जीमते, तो आंगन पर क्र खाना खिलने का वंहा करना पड़ता, इतने बड़े घर में वो बालिका वधु रत तक अकेली उतनों का भोजन इस घर से उस घर तक अकेली करती ,रात ११ बजे तक.